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ऋत से उपभोक्तावाद तक : नववर्ष की यात्रा

*ऋत से उपभोक्तावाद तक : नववर्ष की यात्रा*

*लेखक- डॉ. बृजेश कुमार साहू*
नववर्ष केवल कैलेंडर के पन्ने पलटने का नाम नहीं है, बल्कि वह समाज की जीवन-दृष्टि, समय-बोध और सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करता है। भारतीय ज्ञान-परंपरा में काल एक यांत्रिक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक सजीव, नैतिक और आध्यात्मिक सत्ता है। ऋत—अर्थात् विश्व-व्यवस्था—के अनुरूप जीवन जीना ही भारतीय चिंतन का मूल है। ऐसे में भारत में अंग्रेज़ी नववर्ष का व्यापक और उत्सवधर्मी स्वीकार एक गहन प्रश्न उपस्थित करता है।

भारतीय परंपरा में नववर्ष प्रकृति के पुनर्जागरण से जुड़ा है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, गुड़ी पड़वा, उगादी या विषु—ये सभी नववर्ष ऋतु-परिवर्तन, कृषि-चक्र और सूर्य-गति से संबद्ध हैं। यहाँ नववर्ष आत्म-शुद्धि, संयम, संकल्प और लोक-कल्याण का अवसर है। इसके विपरीत अंग्रेज़ी नववर्ष, जिसकी जड़ें रोमन–ईसाई प्रशासनिक व्यवस्था में हैं, भारतीय भूगोल, ऋतु और जीवन-शैली से प्रत्यक्षतः असंबद्ध है।

आज अंग्रेज़ी नववर्ष का उत्सव प्रायः उपभोक्तावादी संस्कृति का पर्याय बन गया है—पार्टी, दिखावा और बाजार-प्रेरित उल्लास। इसमें न तो आत्मावलोकन है, न सामाजिक उत्तरदायित्व, न ही प्रकृति के साथ सामंजस्य। प्रश्न यह नहीं कि वैश्विक समय-प्रणाली को अपनाया जाए या नहीं, प्रश्न यह है कि क्या हम अपनी सांस्कृतिक चेतना को बाजार के हवाले कर रहे हैं?

भारतीय ज्ञान-परंपरा सिखाती है कि समय को भोग नहीं, संस्कार देना चाहिए। “कालयते इति कालः”—जो परिष्कृत करे, वही काल है। यदि नववर्ष हमें अधिक संवेदनशील, उत्तरदायी और संतुलित नहीं बनाता, तो वह केवल एक औपचारिक तिथि-परिवर्तन भर रह जाता है।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम अंग्रेज़ी नववर्ष को मात्र एक प्रशासनिक सुविधा के रूप में स्वीकार करें, किंतु अपनी सांस्कृतिक आत्मा भारतीय नववर्षों में पुनः प्रतिष्ठित करें। आधुनिकता और परंपरा का संतुलन ही भारतीयता की सच्ची पहचान है।भारतीय होना समय के पीछे चलना नहीं,समय को जीवन-मूल्यों से आलोकित करना है।

अंग्रेज़ी नववर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना आज के उत्सवधर्मी वातावरण में विशेष रूप से आवश्यक हो गया है। इसकी जड़ें प्राचीन रोमन कैलेंडर में निहित हैं, जिसे सर्वप्रथम 46 ईसा-पूर्व में रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने जूलियन कैलेंडर के रूप में व्यवस्थित किया। इस कैलेंडर का उद्देश्य खगोलीय सटीकता से अधिक साम्राज्य के प्रशासन, कर-व्यवस्था और सैन्य संचालन को सुव्यवस्थित करना था। इसमें समय को शासन और नियंत्रण की इकाई के रूप में देखा गया, न कि जीवन और प्रकृति के सहचर के रूप में।

कालांतर में खगोलीय त्रुटियों को सुधारने हेतु 1582 ईस्वी में पोप ग्रेगरी तेरहवें द्वारा ग्रेगोरियन कैलेंडर लागू किया गया। यह सुधार ईसाई धार्मिक पर्वों, विशेषतः ईस्टर, की तिथियों को स्थिर करने के लिए किया गया था। इस प्रकार यह कैलेंडर मूलतः ईसाई धार्मिक आवश्यकताओं से भी जुड़ गया।

गौरतलब है कि इस समय-प्रणाली का प्रकृति, ऋतु-परिवर्तन और कृषि-चक्र से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। यह मनुष्य-केंद्रित और प्रशासनिक दृष्टिकोण से विकसित हुई व्यवस्था है। इसके विपरीत भारतीय काल-बोध प्रकृति, सूर्य-गति और ऋतु-चक्र से गहराई से जुड़ा रहा है।

अतः अंग्रेज़ी नववर्ष का वैश्विक प्रचलन ऐतिहासिक और प्रशासनिक कारणों से समझा जा सकता है, किंतु इसे सांस्कृतिक उत्सव के रूप में अपनाना एक विचारणीय प्रश्न बना रहता है।

*भारतीय नववर्ष—प्रकृति, काल और चेतना का उत्सव*

भारतीय ज्ञान-परंपरा में नववर्ष केवल तिथि का आरंभ नहीं, बल्कि प्रकृति, खगोल-विज्ञान और जीवन-संतुलन का समन्वित उत्सव है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मनाए जाने वाले नववर्ष—उत्तर भारत में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा, कर्नाटक और आंध्र में उगादी, बंगाल में पोइला बोइशाख, तमिलनाडु में पुथांडु और केरल में विषु—इस बात के साक्ष्य हैं कि भारतीय काल-बोध भूगोल और ऋतु के अनुरूप विकसित हुआ है।

भारतीय परंपरा में नववर्ष का निर्धारण सूर्य-गति, चंद्र-चक्र और ऋतु-परिवर्तन के आधार पर किया जाता है। वसंत ऋतु का आगमन, नई फसल, हरियाली और सृजनशीलता—ये सभी नववर्ष के साथ जुड़कर जीवन में नव-ऊर्जा का संचार करते हैं। यही कारण है कि भारतीय नववर्ष कृषि आधारित है और किसान, प्रकृति तथा समाज के बीच संतुलन स्थापित करता है।

यह नववर्ष केवल व्यक्तिगत उल्लास का नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शुद्धि, सामाजिक समरसता और सामूहिक संकल्प का अवसर है। दान, पूजा, संकल्प और शुभ आरंभ की परंपराएँ भारतीय जीवन-दृष्टि को प्रतिबिंबित करती हैं।

भारतीय ज्ञान-परंपरा सिखाती है कि समय को जीया नहीं, संवारा जाता है। इसलिए भारतीय नववर्ष उपभोक्तावाद नहीं, बल्कि संस्कार, संतुलन और सह-अस्तित्व का प्रतीक है—यही भारतीयता का मूल अर्थ है।

*भारतीय होना—एक जीवन-दृष्टि*

भारतीय होना केवल भौगोलिक या राष्ट्रीय पहचान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहन दार्शनिक और नैतिक चेतना का परिचायक है। भारतीय ज्ञान-परंपरा में मनुष्य स्वयं को केवल उपभोक्ता या नागरिक नहीं, बल्कि ऋत—अर्थात् ब्रह्मांडीय व्यवस्था—का सहभागी मानता है। यही विश्वास भारतीय जीवन-दृष्टि की आधारशिला है, जहाँ प्रकृति, समाज और व्यक्ति के बीच संतुलन अनिवार्य माना गया है।

भारतीय परंपरा में धर्म किसी संकीर्ण धार्मिक मत का नाम नहीं, बल्कि जीवन को संचालित करने वाली पद्धति है। धर्म कर्तव्य, करुणा, सत्य और मर्यादा के माध्यम से व्यक्ति और समाज दोनों को दिशा देता है। इसी से संस्कार जन्म लेते हैं, जो व्यक्ति को आत्मानुशासन और उत्तरदायित्व का बोध कराते हैं। यहाँ अधिकार से पहले कर्तव्य का स्मरण भारतीयता की विशिष्ट पहचान है।

ऋग्वेद का उद्घोष—“कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”—भारतीय दृष्टि की सार्वभौमिकता को प्रकट करता है। भारतीय चिंतन केवल आत्म-कल्याण तक सीमित नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व के उत्थान की कामना करता है। इसी भाव से सह-अस्तित्व और समरसता भारतीय समाज के मूल मूल्य बने हैं।

भारतीय दृष्टि में नववर्ष आत्म-शुद्धि, संकल्प और लोक-कल्याण का अवसर है। यह हमें स्मरण कराता है कि भारतीय होना समय के साथ बदलना नहीं, बल्कि समय को मानवीय और नैतिक मूल्य देना है।

 *सांस्कृतिक द्वंद्व—स्वीकार या अस्वीकार?*

आधुनिक भारत आज एक गहरे सांस्कृतिक द्वंद्व के दौर से गुजर रहा है। प्रश्न यह नहीं है कि अंग्रेज़ी नववर्ष मनाया जाए या नहीं, बल्कि यह है कि क्या इस उत्सव की चकाचौंध में हम अपनी सांस्कृतिक जड़ों को विस्मृत करते जा रहे हैं? वैश्वीकरण के युग में अंग्रेज़ी कैलेंडर का उपयोग प्रशासन, व्यापार और अंतरराष्ट्रीय संवाद के लिए अनिवार्य हो चुका है, किंतु समस्या तब उत्पन्न होती है जब यह व्यवहारिक व्यवस्था सांस्कृतिक आचरण का स्थान लेने लगती है।

भारतीय नववर्ष, जो कभी समाज के सामूहिक जीवन का केंद्र था, आज प्रायः पंचांग और परंपरागत कर्मकांड तक सीमित होकर रह गया है। नई पीढ़ी को उसकी दार्शनिक, सामाजिक और प्रकृति-संबद्ध चेतना से परिचित कराने के प्रयास नगण्य हैं। परिणामस्वरूप, उत्सव तो बढ़ रहे हैं, पर संस्कार कम होते जा रहे हैं।

संतुलन ही इस द्वंद्व का समाधान है। वैश्विक समय-प्रणाली को अपनाना व्यवहारिक विवेक का संकेत है, पर सांस्कृतिक आत्म-विस्मृति आत्मघाती सिद्ध हो सकती है। जो समाज अपने काल-बोध, पर्व और परंपराओं को खो देता है, वह धीरे-धीरे अपनी पहचान भी खो देता है।

आवश्यकता इस बात की है कि हम आधुनिकता को अस्वीकार किए बिना अपनी सांस्कृतिक आत्मा को पुनर्जीवित करें। भारतीयता का सार विरोध में नहीं, संतुलन में है—जहाँ समय के साथ कदम मिलते हुए भी अपनी जड़ों से संबंध अटूट बना रहे।

 *समय, चेतना और भारतीयता*

अंग्रेज़ी नववर्ष आज की आधुनिक वैश्विक व्यवस्था का एक स्वीकृत अंग है। प्रशासन, व्यापार और अंतरराष्ट्रीय संपर्क के लिए उसका उपयोग व्यवहारिक आवश्यकता है, किंतु भारतीय होने का अर्थ केवल वैश्विक प्रवृत्तियों का अनुकरण करना नहीं है। भारतीय संस्कृति की विशेषता यह है कि वह समय को मात्र गणितीय इकाई नहीं मानती, बल्कि उसे चेतना और संस्कार से जोड़कर देखती है। यहाँ काल जीवन को दिशा देता है, न कि केवल गति।

भारतीय नववर्षों की परंपरा—चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, गुड़ी पड़वा, उगादी या पोइला बोइशाख—समाज को प्रकृति, ऋतु और सामूहिक जीवन से जोड़ती रही है। दुर्भाग्यवश आज ये पर्व सामाजिक चेतना के केंद्र से हटकर सीमित दायरे में सिमटते जा रहे हैं। आवश्यकता है कि भारतीय नववर्ष को पुनः सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान की जाए, ताकि वह केवल धार्मिक कर्मकांड न रहकर सांस्कृतिक आत्मबोध का माध्यम बने।

इसके साथ ही शिक्षा-प्रणाली में सांस्कृतिक बोध का समावेश अनिवार्य है। जब तक नई पीढ़ी को अपने काल-बोध, पर्व और परंपराओं का अर्थ नहीं समझाया जाएगा, तब तक सांस्कृतिक असंतुलन बना रहेगा। आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन ही भारतीयता की सच्ची पहचान है।
भारतीय होना समय के साथ बहना नहीं, बल्कि समय को मानवीय और नैतिक संस्कार देना है—यही हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी है।
लेखक संस्कृत भारती के मध्यभारत प्रांत के महाविद्यालयीन संपर्क प्रमुख हैं।
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