उमा भारती : बोये पेड़ बबूल के, तो आम कहां से होय
मोहनलाल मोदी
हाल ही में मध्य प्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती का बयान देखने को मिला। उन्हें यह स्पष्ट करना पड़ा कि मैं हासिए पर नहीं हूं। पार्टी कहेगी तो 2029 का चुनाव झांसी से लडूंगी। साथ में यह कहना नहीं भूलीं कि आजकल उनका समय गाय और गंगा से जुड़े कार्यों में गुजर रहा है। साथ ही 29 अक्टूबर गोपाष्टमी से गौ संवर्धन अभियान शुरुआत करने की घोषणा भी की है। कुल मिलाकर बात भाजपा की कम अन्य मुद्दों की ज्यादा हुई। कभी मध्य प्रदेश भाजपा की धुरी कही जाने वाली उमाश्री और भाजपा के बीच का अंतर आश्चर्यजनक है। देखा जाए तो इन अनपेक्षित हालातों के लिए स्वयं सुश्री उमा भारती ही जिम्मेदार हैं। वैसे भी मध्य प्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती अब जब कभी भी चर्चाओं में आती हैं, तब इसलिए नहीं कि भाजपा ने उन्हें कोई जिम्मेदारी दी या फिर उन्हें कोई पार्टी का कार्य मिला है। अब उनकी चर्चा भाजपा को छोड़कर हर विषय को स्पर्श करती है। यह और बात है कि भाजपा ने अब उमा भारती का जिक्र तक करना छोड़ दिया है। यही कारण है कि उमाश्री अब कभी शराब बंदी, कभी गौ हित, कभी गंगा सेवा और कभी-कभी अध्यात्म को लेकर मीडिया में सुर्खियां पाती रहती हैं। वरना एक समय ऐसा भी था जब कम से कम मध्य प्रदेश में तो भाजपा की राजनीति उमा भारती से ही शुरू होती थी और उन्हीं के नाम पर पूर्णता को प्राप्त हुआ करती थी। यही कारण रहा कि जब भाजपा ने दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसी दिग्गज मुख्यमंत्री को पटखनी देने का निर्णायक मन बनाया, तब जिम्मेदारी तेज तर्रार नेत्री उमा भारती को ही सौंपी गई। कभी राम मंदिर आंदोलन का फायर ब्रांड चेहरा रहीं उमाश्री ने पार्टी को निराश नहीं किया और कांग्रेस की 10 साल पुरानी सरकार को मध्य प्रदेश से उखाड़ फेंका। बस यहीं से घटनाक्रम इतनी तेजी से अनियंत्रित हुए कि उमाश्री का भाजपा में भविष्य सीमित होता चला गया। उनके तीखे तेवर जो कभी विरोधियों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ करते थे, वह अब भाजपा नेताओं के लिए परेशानी का सबक बनने लगे। दुस्साहस की पराकाष्ठा यह कि मीडिया के ऑन कैमरों के सामने पार्टी के आला नेता लालकृष्ण आडवाणी की अवमानना कर बैठीं। तभी हुबली का तिरंगा कांड निर्णायक घटनाक्रम बनकर सामने आ गया। उक्त मामले में उमाश्री का गिरफ्तारी वारंट जारी हो गया। राजनीतिक सदाचार के नाते उन्हें मुख्यमंत्री का पद त्याग कर अपनी जगह बाबूलाल गौर का राज तिलक करना पड़ गया। तब तक बीजेपी आलाकमान को भनक लग चुकी थी कि कर्नाटक में देशभर का मीडिया जमा होने जा रहा है। मीडिया के माध्यम से उमाश्री को हीरोइन बनाकर, उमा समर्थक भाजपाई इस तेज तर्रार नेत्री को प्रादेशिक नेत्री की छवि से बाहर निकाल कर उन्हें राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने, और फिर भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का ताना-बाना बुनने में जुट गए हैं। उमाश्री तिरंगा हाथ में लेकर कर्नाटक के हुबली शहर में पहुंच गईं ।तभी एक नाटकीय एक घटनाक्रम के तहत कर्नाटक सरकार ने अदालत से वह कैसे ही वापस ले लिया, जिसके तहत उमाश्री की गिरफ्तारी होना थी। फल स्वरुप उनकी गिरफ्तारी टल गई। यहां स्पष्ट कर दें कि तत समय कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार थी और उस राज्य के राजनीतिक प्रभारी वहीं दिग्विजय सिंह थे, जिनको चुनावी मैदान में उमा भारती ने धूल चटाई थी। यह उन्हें राजनीति का पहला अप्रत्याशित झटका था कि वह राष्ट्रीय अखबारों के फ्रंट पेज की सुर्खियां बनते बनते रह गई, और रह गया उनका भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का सपना। उन्हें दूसरा झटका तब लगा जब बाबूलाल गौर ने उनके लिए मुख्यमंत्री का पद छोड़ने से स्पष्ट मना कर दिया। तीसरा और निर्णायक झटका यह था कि भाजपा आला कमान, यानि अटल बिहारी वाजपेई और लाल कृष्ण आडवाणी आदि नेताओं ने सब कुछ विधायकों के रुझान पर छोड़ दिया। नतीजा, आत्मविश्वास के अतिरेक की शिकार उमा श्री को केवल 11 महीना मुख्यमंत्री रहने के बाद धनतेरस के दिन भाजपा छोड़ देनी पड़ गई। उस वक्त मध्य प्रदेश का जनमानस उमा श्री के साथ था। खासकर महिलाओं की सहानुभूति उमाश्री पर बरस रही थी। लेकिन यह वास्तविकता भी वह भांप नहीं पाईं और उपचुनाव में अपनी परंपरागत सीट मलहरा पर चुनाव लड़ने से किनारा कर गईं । भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई तो प्रदेश में काबिलियत साबित करने की बजाय राष्ट्रीय नेता बनने के सपने बुनने बैठ गईं। लिहाजा मध्य प्रदेश से भी जनाधार खिसकता चला गया। पहली बार में जीत कर आए चार विधायक भी भाजपा में लौट गए। फिर तो उनके सिपाहियों में घर वापसी की होड़ मच गई। सबसे तगड़ा झटका लगा, जब प्रहलाद सिंह पटेल और रघुनंदन शर्मा जैसे दिग्गज भी उनके कुछ ज्यादा ही सख्त और अड़ियल रवैए से परेशान होकर भाजपा में लौट गए। अंततः उमाश्री थक गईं और केंद्रीय मंत्री का पद पाकर हारे मन से भाजपा में लौट आईं। लेकिन काठ की हांडी दोबारा आंच पर नहीं चढ़ती, यह बात उन्हें भाजपा में लौटने के बाद समझ में आई। लोकसभा अथवा विधानसभा चुनाव में उनके खुद के टिकट के अलावा, उनके किसी भी समर्थक को कम से कम उनके माध्यम से तो कभी अनुग्रहित नहीं किया गया। जल्दी ही उनकी हालत भीड़ में अकेले जैसी हो गई। क्योंकि जिनकी उमाश्री में निष्ठा थी वह जनशक्ति की टीम तो उमाश्री ने सड़कों पर लावारिस ही छोड़ दी थी। उनकी पार्टी का तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष आज भी रोता है, कि वह उमा भारती पर करोड़ों खर्च करके भी उनके माध्यम से विधानसभा का टिकट तक नहीं पा सका, जबकि उमा श्री स्वयं केंद्रीय मंत्री बन बैठीं। उमाश्री जो कभी एमपी बीजेपी की आन बान शान हुआ करती थीं। अब उनका नाम हर प्रकार की स्टार प्रचारक सूची से बाहर हो चुका है। कोई महती जिम्मेदारी संगठन की उनके पास नहीं है। पार्टी ने जैसे राजनीति में उनका सहयोग न लेने का मन बना लिया है। लिहाजा अब उमाश्री के मुख से भाजपा का नाम भले ही निकल जाए, भाजपा नेता उनके नाम का उल्लेख करना लगभग भूल चुके हैं। निस्संदेह इन उपेक्षा पूर्ण हालातों के लिए दूसरा और कोई नहीं, खुद उमाश्री ही जिम्मेदार हैं।
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