लोकतंत्र का शुद्धिकरण एसआईआर
राजनीतिक विरोध सर्वथा अनुचित
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा मतदाता सूचियों के विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (Special Summary Revision) की प्रक्रिया का कड़ा विरोध और इसके लिए चुनाव आयोग पर गंभीर आरोप लगाना, भारतीय लोकतंत्र के प्रति उनकी खतरनाक प्रवृत्ति को दर्शाता है। यह सिर्फ एक राज्य की राजनीति का मसला नहीं है, बल्कि यह सवाल उठाता है कि क्या राजनीतिक हित देश के संवैधानिक दायित्वों और आंतरिक सुरक्षा पर हावी हो सकते हैं? ममता बनर्जी ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पत्र लिखकर इस पूरी प्रक्रिया को "अव्यवस्थित", "जबरन थोपे जाने वाला" और "खतरनाक" बताया है और इसे रोकने की मांग की है। यह विरोध तब हो रहा है जब मतदाता सूची का शुद्धिकरण, यानी एसआईआर, लोकतंत्र के स्वस्थ संचालन के लिए एक अत्यंत आवश्यक संवैधानिक प्रक्रिया बनी हुई है। हमारा संविधान और हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था मतदाता सूची की शुद्धता पर टिकी हुई है। यदि वोटर लिस्ट ही अशुद्ध होगी, जिसमें अपात्र लोगों के नाम शामिल हों और पात्र लोग छूट जाएं, तो उस पर आधारित हर व्यवस्था और ढांचा शुद्ध कैसे हो सकता है? मतदाता शुद्धिकरण की प्रक्रिया वस्तुतः लोकतंत्र के शुद्धिकरण के लिए एक अपरिहार्य शर्त है। इस दृष्टि से देखा जाए तो एसआईआर की आवश्यकता पर कोई प्रश्न खड़ा हो ही नहीं सकता। प्रश्न केवल इसकी प्रक्रिया, समय-सीमा और पारदर्शिता पर हो सकता है, और इन बिंदुओं पर सुधार के लिए रचनात्मक संवाद की हमेशा गुंजाइश रहती है। लेकिन किसी संवैधानिक प्रक्रिया का संविधान हाथ में लेकर, शपथ का उल्लंघन करते हुए, पूरी तरह से विरोध करना स्वयं संविधान के साथ एक प्रकार की हिंसा है। एसआईआर का विरोध करने वाले राजनेताओं और राजनीतिक संगठनों का सबसे बड़ा आरोप यह है कि निर्वाचन आयोग भाजपा की "बी टीम" के रूप में काम कर रहा है और यह प्रक्रिया सत्ता पक्ष का एक राजनीतिक हथियार है। हालांकि, बिहार जैसे राज्यों में, जहां एसआईआर की प्रक्रिया पूरी सफलता के साथ संपन्न हुई। तब भी विरोधी दलों ने इस पर अनेक सवालिया निशान लगाए। इस दौरान बिहार के चुनाव संपन्न भी हो गए और चुनाव परिणाम भी सामने आ गए। लेकिन विरोधी दलों की दलीलों को खोखला करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक नहीं लगाई। इस दृष्टि से देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग द्वारा अपनाई जा रही कार्य प्रणाली को सही ही ठहराया है। अगर हम पश्चिम बंगाल के विशेष संदर्भ को देखें, तो वहां एसआईआर की जरूरत बिहार से कहीं ज्यादा है। सीमावर्ती राज्य होने के नाते, अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए यहां एक गंभीर समस्या रहे हैं। पश्चिम बंगाल में यह समस्या इतनी बढ़ गई है कि कुछ इलाकों में डेमोग्राफी परिवर्तित होने की परिस्थितियों निर्मित होने लगी हैं । जैसे ही पश्चिम बंगाल में एसआईआर लागू होने की खबर आम हुई, वैसे ही वहां सालों से जमे हुए बांग्लादेशी घुसपैठियों में मानो खलबली मच गई है। हाल ही में सीमा पर बांग्लादेशी नागरिकों के वापस अपने देश जाने के लिए लाइनों में खड़े होने के वीडियो वायरल हुए हैं। जो सीधे तौर पर इस समस्या की भयावहता और मतदाता कार्ड-आधार कार्ड में हुई गड़बड़ियों को उजागर करते हैं। जाहिर है वहां पर सत्ता को कब्जे में बनाए रखने के लिए तृणमूल कांग्रेस और उसकी नेता सुश्री ममता बनर्जी देश से ज्यादा राजनीतिक लाभ को महत्व देती रही हैं।
विडंबना यह है कि आज एसआईआर का विरोध कर रही ममता बनर्जी, विपक्ष में रहते हुए लोकसभा में स्वयं ही वामपंथी सरकार को बंगाल में घुसपैठ की समस्या बढ़ाने के लिए जिम्मेदार ठहरा चुकी हैं। अफसोस की बात यह है कि सत्ता में आते ही उन्होंने वही रास्ता पकड़ लिया, घुसपैठियों को वोट बैंक के रूप में उपयोग करना। यह बात आईने की तरह साफ है कि एसआईआर का डर केवल उन्हीं को हो सकता है जो अवैध रूप से देश में रह रहे हैं, न कि वैध भारतीय नागरिकों को। डर के शिकार वह नेता लोग भी हैं जो अभी तक घुसपैठियों के फर्जी मतदाता परिचय पत्र और आधार कार्ड बनवाकर उनका अपने चुनावी हित में दुरुपयोग करते रहे हैं। जबकि चुनाव आयोग हर पात्र मतदाता को वोटर लिस्ट में रखने के लिए प्रतिबद्ध है, और यह सुनिश्चित किया गया है कि जिसके पास भी भारत का नागरिक होने के पात्र दस्तावेज़ उपलब्ध होंगे, उसे सूची से बाहर नहीं किया जाएगा। चुनाव से पहले तक नाम जोड़ने की प्रक्रिया जारी रहती है। ऐसे में कुछ राजनीतिक दलों का मुख्य हित पात्र लोगों का नाम जुड़वाने में नहीं, बल्कि अपात्रों (विशेषकर विदेशी घुसपैठियों) के नामों को बनाए रखने में दिखाई देता है। यह हित देश की आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय संसाधनों पर भारी पड़ रहा है। एक भी घुसपैठिया राष्ट्र के संसाधनों पर बोझ है और राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा बन सकता है। एक ओर केंद्र सरकार सीमाओं की सुरक्षा के लिए दूसरे देशों से लड़ने को तैयार रहती हैं, वहीं कुछ राज्यों में सरकारों पर कब्जा करके बैठे विरोधी दल चुनावी फायदे के लिए विदेशी घुसपैठियों को संरक्षण दें, यह भारत का संविधान और नागरिकों का विवेक कैसे स्वीकार कर सकता है? यह स्पष्ट है कि जो लोग एसआईआर का विरोध कर रहे हैं, वे ही अतीत में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी का भी विरोध कर रहे थे। क्योंकि एनआरसी भी घुसपैठियों के खिलाफ एक मजबूत हथियार के रूप में केंद्र सरकार द्वारा लागू किया गया था। उसी प्रकार अब एसआईआर चुनावी शुद्धता के लिए हो रहा है, जो अंततः राष्ट्र की शुद्धता के लिए आवश्यक है। पश्चिम बंगाल में चुनावी लड़ाई अब मुख्य रूप से तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच सिमट गई है, क्योंकि कांग्रेस और वामपंथी दल वहां हाशिए पर जा चुके हैं। उधर ममता बनर्जी एसआईआर को अपने वोट बैंक के खिलाफ एक नुकसानदायक हथियार मानती हैं, जिससे इस चुनाव में बंगाल की लड़ाई और भी भीषण होने की आशंका है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में केवल बंगाल ही ऐसा राज्य बचा है जहां चुनावी हिंसा व्यापक रूप से देखने को मिलती है। अगला चुनाव भी रक्त रंजित हो सकता है, यह आशंका पिछले अनुभवों के आधार पर व्यक्त की जा सकती है। जाहिर है वहां मतदान के दौरान चुनाव आयोग को पहले की अपेक्षा और अधिक सतर्कता बरतने की जरूरत रहेगी। जहां तक बूथ लेवल अधिकारी पर अतिरिक्त कार्य के दबाव का सवाल है, तो लोकतंत्र की मजबूती किसी भी भावनात्मक आघात या फिर शारीरिक परेशानी से अधिक महत्वपूर्ण है। हालांकि यह अपेक्षा अपनी जगह उचित है कि चुनाव आयोग को एफआईआर की प्रक्रिया को सरल, सहज और पारदर्शी बनाए रखना चाहिए, ताकि कोई पात्र मतदाता न छूटे, और अधिकारियों पर अनावश्यक दबाव न पड़े। लेकिन संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक प्रक्रिया का विरोध करना और एसआईआर जैसी शुद्धिकरण प्रक्रिया को हिंदू-मुस्लिम की राजनीति से जोड़ना, राजनेताओं की उस चुनावी ममता को दर्शाता है जो राष्ट्रीय कटुता फैला रही है। ऐसे में मतदाताओं का विवेक ही लोकतंत्र को मजबूत करेगा। भले ही चुनावी रंग कोई भी हो, हमें विश्वास रखना होगा कि लोकतंत्र का शुद्धिकरण, जो एसआईआर जैसी प्रक्रियाओं से होता है, देश के भविष्य के लिए अपरिहार्य है। राजनीतिक दलों को अपने अल्पकालिक हितों को त्यागकर, संविधान की सर्वोच्चता का पालन करते हुए, इस राष्ट्रव्यापी शुद्धिकरण अभियान में ईमानदारी बरतनी चाहिए।
देश के नागरिकों को भी यह सच्चाई समझनी होगी कि बिहार में घुसपैठियों के नाम मतदाता सूचियां से कट जाने पर वहां भारतीय नागरिकों का रुझान चुनाव परिणाम के माध्यम से सामने आ चुका है। जाहिर है पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को भी यही डर सता रहा है। उक्त पार्टी और उसकी नेता ममता बनर्जी को डर है कि यदि यहां भी घुसपैठियों की सफाई हो गई तो मतदाता सूची में सुरक्षित मतदाताओं का शुद्ध रुझान भाजपा जैसे राष्ट्रवादी राजनीतिक दलों के पक्ष में की झलकने वाला है। बस इसी डर के चलते ममता बनर्जी संविधान की आड़ लेकर संविधान को ही लहू लुहान करने का प्रपंच रच रही हैं। देश की जनता को चुनाव आयोग पर और सर्वोच्च न्यायालय की विशुद्ध संवैधानिक मंशा पर भरोसा है। एसआईआर देशभर की मतदाता सूची को शुद्ध करने में सफल साबित होगा। इसमें सभी के सहयोग की अपेक्षा है।
लेखक मध्य प्रदेश बाल कल्याण आयोग के पूर्व अध्यक्ष, मध्य प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के निवृतमान प्रदेश कार्यालय मंत्री तथा वर्तमान में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के "मन की बात" के प्रदेश संयोजक हैं. राजनीति और सामाजिक क्षेत्र के अनेक ग्रंथों का सृजन करने का श्रेय लेखक को प्राप्त है।
#BJP #RSS #Raghavendra Sharma #Mohanlal Modi #Shabdghosh #India #nationalist #Nationalism #Narendra Modi #Man ki baat #politics #social #Bangladesh #Nepal #terrorism #communal #young India #s i r #West Bengal #Mamta banarji #Bangladesh #election commission #supreme court #TMC #nrc#demography change

0 टिप्पणियाँ