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समानता का संवैधानिक स्वप्न और सामाजिक यथार्थ

समानता का संवैधानिक स्वप्न और सामाजिक यथार्थ

डॉ बृजेश कुमार साहू
इक्कीसवीं सदी का भारत वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में तीव्र गति से उभरती हुई शक्ति के रूप में स्थापित हो रहा है। सकल घरेलू उत्पाद में निरंतर वृद्धि, डिजिटल अर्थव्यवस्था का विस्तार, अंतरिक्ष विज्ञान में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ तथा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सशक्त उपस्थिति—ये सभी आधुनिक भारत की प्रगति के द्योतक हैं। तथापि, इस विकासोन्मुखी कथा के समानांतर एक ऐसी सामाजिक वास्तविकता भी विद्यमान है, जो राष्ट्र की लोकतांत्रिक आत्मा और संवैधानिक समानता के सिद्धांतों पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े करती है। यह वास्तविकता है—सामाजिक असमानता, जो आज भारत की सबसे गहरी, व्यापक और अपेक्षाकृत उपेक्षित संरचनात्मक समस्या के रूप में उभर रही है।

भारत आज विश्व की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में गिना जा रहा है। ऊँची इमारतें, डिजिटल भुगतान, अंतरिक्ष मिशन और वैश्विक मंचों पर आत्मविश्वासी उपस्थिति—ये सब आधुनिक भारत की पहचान बन चुके हैं। किंतु इस चमकदार चित्र के पीछे एक ऐसा भारत भी है, जहाँ अवसर जन्म से तय होते हैं, मेहनत के बावजूद उन्नति सीमित रहती है और समानता संविधान की किताबों में अधिक, ज़मीनी जीवन में कम दिखाई देती है। सामाजिक असमानता आज भारत की सबसे गहरी और खामोश समस्या बन चुकी है।

आँकड़े इस सच्चाई को बिना भावुकता के उजागर करते हैं। भारत में शीर्ष 1% आबादी के पास लगभग 40% संपत्ति केंद्रित है, जबकि निचले 50% लोगों के पास कुल संपत्ति का केवल 6–7% हिस्सा है। आय के स्तर पर भी स्थिति अलग नहीं—शीर्ष 10% लोग राष्ट्रीय आय का आधे से अधिक भाग अर्जित करते हैं, जबकि बहुसंख्यक आबादी सीमित संसाधनों में जीवन यापन को विवश है। यह आर्थिक विषमता केवल धन की असमानता नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और गरिमा की असमानता को भी जन्म देती है। जब विकास का लाभ कुछ हाथों तक सिमट जाए, तो आर्थिक प्रगति सामाजिक तनाव में बदलने लगती है।

यह आर्थिक खाई सामाजिक संरचना से अलग नहीं है। भारत में आज भी जाति और वर्ग व्यक्ति की संभावनाओं को गहराई से प्रभावित करते हैं। अनेक अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि उच्च जातियों की भागीदारी संपत्ति, उच्च शिक्षा और कॉरपोरेट नेतृत्व में असमान रूप से अधिक है, जबकि अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों की स्थिति अपेक्षाकृत कमजोर बनी हुई है। यह स्थिति केवल अतीत की विरासत नहीं, बल्कि वर्तमान की संरचनात्मक विफलता है। जब जाति जन्म से अवसर तय करे, तो प्रतिभा और परिश्रम का मूल्य स्वतः कम हो जाता है। समानता का दावा तब खोखला लगता है, जब सामाजिक पृष्ठभूमि ही भविष्य की दिशा तय करने लगे।

सामाजिक असमानता का तीसरा और सबसे निर्णायक पहलू है—अवसरों तक समान पहुँच का अभाव। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर आज भी शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं। ग्रामीण भारत में विद्यालयों की गुणवत्ता, स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता और कौशल विकास के अवसर सीमित हैं। 80% से अधिक भारतीय आर्थिक असमानता को गंभीर समस्या मानते हैं और बहुसंख्यक नागरिक यह स्वीकार करते हैं कि जन्म आधारित परिस्थितियाँ जीवन की दिशा तय करती हैं। यह जन-धारणा अपने आप में एक चेतावनी है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में समान अवसर का वादा पूरा नहीं हो पा रहा।

सामाजिक असमानता का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह धीरे-धीरे सामाजिक विश्वास को कमजोर करती है। जब नागरिक यह महसूस करने लगें कि व्यवस्था कुछ के लिए बनी है और कुछ के विरुद्ध काम करती है, तब असंतोष, हताशा और सामाजिक विघटन जन्म लेते हैं। यह स्थिति केवल नैतिक समस्या नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्थिरता और दीर्घकालिक विकास के लिए भी गंभीर खतरा है। कोई भी देश तब तक सशक्त नहीं बन सकता, जब तक उसके नागरिक समान अवसर और सम्मान का अनुभव न करें।

अंततः प्रश्न यह नहीं है कि भारत के पास संसाधन हैं या नहीं, बल्कि यह है कि क्या उन संसाधनों का वितरण न्यायपूर्ण है। सामाजिक असमानता दूर करने के लिए केवल योजनाएँ नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक ईमानदारी और सामाजिक चेतना आवश्यक है। शिक्षा और स्वास्थ्य को वास्तविक रूप से सार्वभौमिक बनाना, आर्थिक नीतियों को समावेशी बनाना और जाति-वर्ग-क्षेत्रीय भेदभाव को निर्णायक रूप से चुनौती देना—यही ‘श्रेष्ठ भारत’ की वास्तविक कसौटी है।
यदि भारत को सचमुच आगे बढ़ना है, तो विकास की गति के साथ-साथ समानता की दिशा भी तय करनी होगी; अन्यथा प्रगति की यह दौड़ समाज को साथ लेकर नहीं, बल्कि उसे पीछे छोड़कर आगे बढ़ेगी।

अतः सामाजिक असमानता को केवल आर्थिक या सामाजिक समस्या के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्थिरता, सामाजिक विश्वास और दीर्घकालिक विकास के संदर्भ में समझना आवश्यक है। जब नागरिक यह अनुभव करने लगते हैं कि व्यवस्था कुछ वर्गों के लिए अनुकूल और बहुसंख्यक के लिए प्रतिकूल है, तब सामाजिक विश्वास क्षीण होता है और लोकतांत्रिक संरचनाएँ कमजोर पड़ने लगती हैं। इस पृष्ठभूमि में प्रस्तुत अध्ययन भारत में सामाजिक असमानता के आर्थिक, जातिगत और अवसर-संबंधी आयामों का आँकड़ों के आधार पर विश्लेषण करने का प्रयास करता है तथा यह प्रतिपादित करता है कि समावेशी विकास के बिना ‘श्रेष्ठ भारत’ की संकल्पना अधूरी ही रहेगी।

लेखक संस्कृत भारती के मध्यभारत में महाविद्यालयीन कार्य प्रमुख के दायित्व से युक्त हैं। आप अनेक सामाजिक ग्रंथों के सृजन कर्ता हैं।
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