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मीडिया की आवाज दबाने की कुचेष्टा निंदनीय, गुना में पत्रकार पर छेड़छाड़ और एसटी एक्ट के तहत मुकदमा!




मोहनलाल मोदी

भोपाल। एक पत्रकार ने चुनाव (Election) लड़ रहे प्रत्याशी और प्रदेश शासन के मंत्री (Minister) की बैठक का अनचाहा वीडियो (Video) दोपहर में बनाया। उस पर देर रात आदिवासी महिला से छेड़छाड़ (Teasing) किए जाने का अपराध पंजीबद्ध हो गया। इस घटना से मीडिया को सबक लेने और एकजुट होने की आवश्यकता है।

यह बात इसलिए लिखना आवश्यक लगी, क्योंकि गुना के कैंट थाने में देर रात एक पत्रकार के खिलाफ आदिवासी महिला द्वारा रिपोर्ट लिखाई गई है। आरोप है कि दोपहर 2:30 बजे के लगभग मंत्री द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में पत्रकार ने शराब पीकर उसके साथ छेड़छाड़ की। उधर पत्रकार का कहना है कि वह उस बैठक का वीडियो बनाने एक कॉलेज भवन में पहुंचा था, जिसे मंत्री ले रहे थे। उसका पक्ष है कि मंत्री द्वारा आंगनवाड़ी, आशा, उषा, कार्यकर्ताओं तथा आजीविका मिशन की महिलाओं की बैठक ली जा रही थी। 

आरोप है कि पत्रकार (Journalist) ने इस बैठक बाबत मंत्री से पक्ष जानना चाहा कि वे चुनावी आचार संहिता के चलते इस तरह की बैठक ले सकते हैं क्या? बकौल पत्रकार, यह बात मंत्री जी को रास नहीं आई। उन्होंने वहां मौजूद कार्यकर्ताओं से पत्रकार को "ठीक" करने हेतु आदेशित किया। संकेत मिलते ही पत्रकार की मारपीट शुरू हो गई। उसका वह मोबाइल छीन लिया गया जिसमें मंत्री द्वारा ली जा रही बैठक को शूट किया गया था। फरियादिया के मुताबिक घटना दोपहर 2:30 बजे की है, जबकि रिपोर्ट देर रात दर्ज कराया जाना अनेक संदेहों को जन्म देता है। 

यह सब उसी वक्त क्यों नहीं हुआ जब पत्रकार ने कथित तौर पर छेड़छाड़ की। क्योंकि फरियादिया के मुताबिक वह मंत्री जी के कार्यक्रम में मौजूद थी, वहीं उसके साथ छेड़छाड़ हुई। इस बात को नजर अंदाज भी कर दिया जाए तो फिर पुलिस कार्रवाई पर सवाल उठते हैं। आरोपी बनाए गए पत्रकार का कहना है कि मुझे भाजपा कार्यकर्ताओं ने मारा लिहाजा पुलिस को उसकी रिपोर्ट भी लेना थी तथा उसका मेडिकल कराया जाना था। इससे मारपीट हुई या नहीं, इस बात की पुष्टि हो जाती तथा क्या उसने शराब पी रखी थी, इसका भी पता चल जाता। इससे भी बड़ी बात यह है कि उक्त पत्रकार का अब तक का चाल चलन बे दाग रहा है। 

फिर भी उस पर आपत्तिजनक धाराएं लाद दी गईं तो फिर यही कहा जा सकता है कि जहां बेदर्द हाकिम हो वहां फरियाद क्या करना? वैसे चुनावी आचार संहिता के तहत जब बड़ी संख्या में एक भवन में महिलाएं एकत्रित हो रही हों। बैठक में मंत्री मौजूद हों, जो कि एक प्रत्याशी भी हैं, तो फिर इस बाबत लिखित सूचना चुनाव आयोग अर्थात प्रशासन को अवश्य रही होगी। लिहाजा वहां इतना बड़ा हुजूम इकट्ठा होने पर पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था होना अपेक्षित था। चुनाव आयोग अर्थात प्रशासन की ओर से उस गतिविधि की रिकॉर्डिंग होना भी आवश्यक प्रतीत होती है। यदि नियम अनुसार ऐसा किया गया है तो फिर लंबी जांच की आवश्यकता नहीं। 

उक्त वीडियो और ड्यूटी पर मौजूद पुलिस बल से सारे तथ्य प्राप्त किये जा सकते हैं। और यदि इनमें से कुछ भी पुलिस प्रशासन के पास उपलब्ध नहीं है तो फिर मंत्री द्वारा ली गई उक्त बैठक ही शक के दायरे में आ जाती है। क्योंकि फरियादिया और आरोपी दोनों एक बात एक जैसी बोल रहे हैं, वह यह कि उक्त कार्यक्रम में मंत्री मौजूद थे। खैर, सत्ता पक्ष का अपना रुतबा होता है, वह अपना काम कर गया। अब राजनेताओं की बात करते हैं। एक पत्रकार ने यह मामला कांग्रेस की प्रेस वार्ता में उठाया। वहां पत्रकारों का साथ देने की बजाय बैठक में मौजूद एक नेता ने पत्रकार को ही सीख दे दी कि उन्हें इस खबर को सुर्खियों के साथ छापना था और अपनी एकजुटता दिखानी थी। 

उक्त कांग्रेसी नेता ने एक बार भूल कर भी यह नहीं कहा कि हम पत्रकार को न्याय दिलाने पुलिस के पास जा रहे हैं। स्थिति साफ है- सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही अपने हित में पत्रकार का उपयोग करना तो चाहते हैं, लेकिन विपत्ति काल में उसके साथ कोई खड़ा होना नहीं चाहता। यह सब इसलिए है कि हमारे बीच एकता का अभाव है। हम पत्रकार दुर्भाग्यवश खुद को दूसरों से अधिक सामर्थ्यवान और प्रतिभाशाली समझने का मुगालता पाल बैठे हैं। हमें अपना ही साथी अपने से छोटा दिखाई देता है। 

हमारी इसी कमी का नाजायज फायदा अधिकारी और नेता उठाते हैं। फल स्वरुप यदा कदा हम सब इनके शिकार बनते हैं और भीड़ में अकेले साबित होते रहते हैं। हम व्यक्ति और समाज हित में एकता के लंबे चौड़े लेख लिखते हैं। क्या हमें अपनी और अपने हम पेशेवर भाइयों की सुरक्षा के लिए एकजुट नहीं होना चाहिए? आचार संहिता का पालन करते हुए, क्या हमें अपना पक्ष पुलिस प्रशासन और चुनाव आयोग के समक्ष नहीं रखना चाहिए?


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