Court के आदेश पर helmet जरूरी
गलती RTO व traffic police की
Petrol pump होने लगे सील
Bike riders पर जुर्माने तेज
कई बार राजशाही और लोकतांत्रिक न्याय प्रणालियों में कुछ ऐसी चूक देखने को मिली हैं, जिनके चलते असल दोषी साफ-साफ बच गए । जबकि मजलूम को सजा हो गई। ऐसा ही मामला हेलमेट का है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि हेलमेट बाइक राइडर्स का जीवन रक्षक है । लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि जोर केवल हेलमेट पर ही क्यों दिया जा रहा है ? हमेशा यह साबित करने की कोशिश क्यों रही कि दुर्घटनाग्रस्त बाइक राइडर्स की मौतें हेलमेट के अभाव में ही होती हैं । किसी व्यक्ति पर आर्थिक बोझ और सर पर हेलमेट का वजन लादने से पहले इस बात पर गौर क्यों नहीं किया जाता कि आखिर सड़क हादसे होते ही क्यों हैं?
अभी तक आदेश थे हेलमेट नहीं लगने पर जुर्माना लगेगा। फिर आदेश आए कि हेलमेट के बगैर पेट्रोल भी नहीं मिलेगा। अब नियम बन गया है कि यदि पेट्रोल पंप संचालक ने बगैर हेलमेट बाइकर्स को पेट्रोल दिया तो उसका पेट्रोल पंप सील अथवा सीज हो जाएगा। यानि हेलमेट नहीं तो कुछ भी नहीं।
आईए, हेलमेट की अत्यावश्यकता पर एक अलग नजरिए से विमर्श करते हैं। माननीय अदालतों के समक्ष विभिन्न माध्यमों से जनहित याचिकाएं पहुंचीं, जिनमें अनेक अध्ययन प्रस्तुत कर यह दलीलें दी गईं कि हेलमेट न होने की अवस्था में दुर्घटनाग्रस्त बाइक सवारों अथवा चालकों की अकाल मृत्यु हो जाती है। लिहाजा अदालत हेलमेट लगाना अनिवार्य करे। दलील ठीक लगी, लिहाजा यह अनिवार्य हो गया कि अब बाइक राइडर्स को हेलमेट लगाना ही होगा। वर्ना उसे पेट्रोल पंप से पेट्रोल नहीं मिलेगा। यदि किसी पंप चालक ने पेट्रोल दिया तो उसका पेट्रोल पंप सील होगा, हो भी रहा है।
किंतु सवाल यह उठता है कि केवल हेलमेट लगाकर दुर्घटनाग्रस्त बाइक राइडर्स की अकाल मृत्यु को रोका जा सकता है? जवाब है नहीं, पूरी तरह तो बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि हेलमेट लगाकर हम परिस्थितिवश सामने आ खड़ी हुई मृत्यु से जूझने का उपक्रम करते हैं। हम उस कारण को खत्म नहीं करते जिसकी वजह से मृत्यु की आशंका स्थाई बनी हुई है। सही कहा जाए तो मृत्यु की आशंका के मूल में आरटीओ विभाग और ट्रैफिक पुलिस की असफल एवं गलत कार्य प्रणाली ही है। आरटीओ विभाग का काला सत्य यह है कि उसके यहां वाहन का रजिस्ट्रेशन, उनकी फिटनेस, इंश्योरेंस, ड्राइविंग लाइसेंस, पर्यावरण संबंधी दस्तावेजों का अवलोकन अथवा सृजन किसी जागरूकता या फिर प्रशिक्षण के आधार पर नहीं होता। उपरोक्त सभी फॉर्मेलिटी अधिकांशतः दलालों के माध्यम से पूरी होती हैं। लिहाजा आवेदक और आरटीओ की प्रशिक्षण टीम का आमना-सामना तक नहीं होता, फिर प्रशिक्षण की बात ही कहां रह जाती है? यदि इस आरोप का प्रमाण चाहिए तो बाइक राइडर्स का आईक्यू टेस्ट किया जा सकता है। अधिकांश को नहीं मालूम हेडलाइट कब अपर में और कब डिपर में रखनी है। ट्रैफिक सिग्नल क्लियर हो जाने पर सामने जाने, अथवा दाएं बाएं मुड़ने से पहले उसे अपनी बाइक किस कतार में रखना चाहिए। बाइक के होर्न की सीमित ध्वनि के चलते रात के समय भारी वाहनों से कैसे साइड मांगी जाए और उन्हें कैसे साइड दी जाए। यदि सामने वाले वाहन की हेडलाइट हमारी आंखों को चकाचौंध कर रही है तो हम उस वहां के चालक तक यह परेशानी किस संकेत के माध्यम से पहुंचाएं?
यह तो कुछ भी नहीं, बहुत सारे यातायात पुलिस कर्मी और आरटीओ प्रशिक्षक भी इन अनुभवों से अंजान बने हुए हैं। जिन के चलते हादसे होते हैं और बिल हेलमेट के नाम पर फाड़ा जाता है।
दावे के साथ लिखा जा सकता है कि राजधानी भोपाल जैसे महानगरों में प्रत्येक ट्रैफिक सिग्नल पर, प्रति मिनट कम से कम एक व्यक्ति सिग्नल तोड़कर वाहन भगा ले जाता है। ऐसा करके वह अपने साथ दूसरे लोगों की जिंदगी भी दांव पर लगाता है। अमूमन तो अधिकांश सिगनलों, चौराहों, तिराहों, पर यातायात पुलिस कर्मी होते नहीं, यदि रहते भी हैं तो उनका ध्यान यातायात को नियंत्रित करने की बजाय चालान काटने में केंद्रित रहता है। छांट छांट कर वाहन रोके जाते हैं। सबसे पहले हेलमेट, उसके उपरांत ड्राइविंग लाइसेंस, रजिस्ट्रेशन, इंश्योरेंस, फिटनेस, पीयूसी आदि की जांच पड़ताल होती है। कहीं ना कहीं वाहन चालक फंसता ही है और पुलिस वालों की बन आती है। पूरी जिम्मेदारी के साथ लिखा जा रहा है कि यातायात सप्ताह को छोड़कर कभी भी यातायात पुलिस को यातायात नियंत्रित करते, नियम विरुद्ध खतरनाक ड्राइविंग करने वाले बाइक राइडर्स को पकड़ते नहीं देखा जाता।
बमुश्किल एक परसेंट वाहन चालक ऐसे हैं जो पुलिस के सामने स्टंट बाजी करते हैं, कट मारते हैं, बेतहाशा स्पीड में गाड़ी दौड़ाते हैं, स्पीड ब्रेकरों पर गाड़ियों को उछालते हैं। लेकिन पुलिस इन्हें नहीं पकड़ती। उसका चालान काटो अभियान निरंतर बना रहता है।
राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय राजमार्गों को छोड़ दें तो अधिकांश शहरों और महानगरों में सड़कें इतनी अच्छी और चौड़ी बची ही नहीं, जिन पर गाड़ियां तेज गति में दौड़ाई जा सकें। 70 से 80 प्रतिशत फुटपाथों पर अवैध कब्जे हैं। राहगीर सड़कों पर चलने को मजबूर हैं। वहीं पर छोटे-बड़े वाहन पार्क बने रहते हैं। लिखने का आशय यह कि गाड़ी दौड़ने की स्थिति है ही नहीं और बात हेलमेट लगाने की हो रही है।
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम अदालत के निर्देशों पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। दरअसल हम उस अर्ध सत्य की ओर इशारा कर रहे हैं जो माननीय अदालतों से याचिका कर्ताओं द्वारा छुपाया गया है। वह यह कि देश में हेलमेट निर्माण हेतु अरबों की लागत वाले प्लांट लगे हुए हैं। लोग लाखों की बाइक तो खरीद रहे हैं, लेकिन कुछ हजार रुपए का हेलमेट नहीं खरीदते। इससे प्रोडक्शन डंप होता है और पूंजी का प्रवाह रुक जाता है। फल स्वरुप हेलमेट उद्योग को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है।
जांच का विषय यह है कि कहीं हेलमेट उद्योग के इशारे पर ही प्रायोजित सर्वेक्षण किए गए हो तो?
एक निर्धारित लक्ष्य के तहत अध्ययनों का निष्कर्ष तय किया गया हो कि हादसा ग्रस्त बाइकर्स की अकाल मृत्यु केवल हेलमेट से ही रोकी जा सकती है, तो?
माननीय अदालत के समक्ष यह सर्वेक्षण क्यों नहीं रखा गया कि हेलमेट लगाने के बाद बाइकर्स को पीछे से आने वाली हॉर्नों की आवाज़ें सुनाई देना बहुत कम हो जाती हैं?
सड़क हादसों के मूल में आरटीओ और यातायात पुलिस की गलत, अपारदर्शी कार्यप्रणाली है, माननीय अदालत के समक्ष यह तथ्य क्यों नहीं रखा गया ?
याचिकाओं में यह बात क्यों छुपाई गई कि खतरनाक स्टंट करते हुए अनियंत्रित गति से गाड़ी दौड़ने वाले एक प्रतिशत लोगों पर नकेल कसने की बजाय केवल और केवल हेलमेट पर बिल फाड़ने में कौन सी सुनियोजित कार्य प्रणाली समाहित है?
सार यह कि सभी को अपनी जान प्यारी है। मुझे हेलमेट लगाना ही नहीं है, ऐसा इंटेंशन किसी का नहीं होना चाहिए। लेकिन इसे लगाया जाना अनिवार्य किए जाने के निर्णय का पुनरीक्ष किया जाना माननीय अदालत के समक्ष सादर निवेदित है।
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