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PDS चावल की कालाबाजारी : हमाम में सब नंगे !

गुना, शब्दघोष संवाददाता। 
केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की कर्मभूमि, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और भारत के पूर्व सीजेआई रमेश चंद्र लाहोटी का गृह जिला, दिलचस्प कार्य शैली का प्रदर्शन कर स्वयं को कर्मयोगी उद्घोषित करने वाले कैबिनेट मंत्री गोविंद सिंह राजपूत का प्रभार क्षेत्र गुना जिला, वर्तमान में उनके नाम अथवा काम से कम, पीडीएस चावल की कालाबाजारी के रूप में ज्यादा विख्यात है। केंद्र की मोदी सरकार द्वारा गरीबों के लिए भेजा जाने वाला राशन दुकान का चावल ट्रकों में भरकर जिले से बाहर खपाया जा रहा है। खाद्य आपूर्ति विभाग और पुलिस महकमा, यह दोनों भी अपने कर्तव्य के प्रति कठोर एवं शाश्वत ईमानदार प्रदर्शित हैं, फिर भी पीडीएस चावल की कालाबाजारी है कि थमने का नाम ही नहीं ले रही।
सर्व विदित है कि भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा केंद्र से गरीबों के लिए हजारों टन चावल भेजा जाता है, जो सरकारी राशन दुकानों के माध्यम से बीपीएल एवं अंत्योदय कार्ड धारियों को वितरित किया जाता है। लेकिन गुना जिले में चावल मुख्य खाद्य पदार्थ के रूप में पसंद नहीं किया जाता। यहां के अधिकांश लोगों को भोजन में रोटी खाना पसंद है। गुना जिले में चावल के शौकीन लोग नाम मात्र के हीं मिलेंगे। फल स्वरुप राशन दुकान संचालक चावल देता है या नहीं, इसमें लोगों की ज्यादा रुचि नहीं रहती। यही वजह है कि मार्केटिंग में बैठे हुए लोग हों या फिर राशन वितरण प्रणाली में समाहित कंट्रोल वाले, गरीबों को चावल ना देकर उसकी कालाबाजारी कर रहे हैं। जिन गरीबों के पास परिस्थिति वश चावल खाने की बेबसी है उन्हें "अभी आया नहीं है" यह कहकर टरका दिया जाता है। ज्यादा जिद किए जाने पर बीच-बीच में जरूरतमंदों को थोड़ा-थोड़ा चावल वितरित होता रहता है, ताकि ज्यादा बड़ा बवाल खड़ा ना हो। जहां तक थंब इंप्रेशन की बात है तो वह सीधे-साधे लोगों से तकनीकी कार्रवाई के नाम पर ले लिया जाता है। कुछ बीपीएल अथवा अंत्योदय राशन कार्ड धारी जो अपने अधिकारों की जानकारी रखते हैं, वह चावल खाने में रुचि ना होते हुए भी  कंट्रोल वाले से अपने हिस्से का चावल लड़ झगड़ कर तुला ही लेते हैं। लेकिन उनसे भी कंट्रोल के आसपास सुनियोजित षड्यंत्र के तहत स्थापित अस्थाई खरीदी केंद्रों पर उक्त चावल को सस्ते भाव पर खरीद लिया जाता है। बाद में यह सारा चावल मार्केटिंग सोसायटी और समस्त शासकीय राशन दुकानों से अलग हटकर अवैध गोदामों में एकत्र किया जाता है। फिर वहां से इसे ट्रकों में भरकर गुना जिले के बाहर परिवहन कर दिया जाता है। यहां एक बात स्पष्ट कर दें कि ढेर सारी आटा मिलों में 8 किलो गेहूं के साथ 2 किलो चावल पीसकर झकाझक सफेद आटा शरबती गेहूं के नाम पर बेचा जा रहा है। इसके अलावा बच्चों द्वारा खाए जाने वाले अनेकों प्रकार के कुरकुरे पॉप्स जैसे चटपटे व्यंजन चावल से बनाए जा रहे हैं। अतः इस मार्केट में मांग ज्यादा होने से चावल का अच्छा खासा भाव कलाबाजारियों को प्राप्त हो रहा है। साउथ इंडियन डिशेज बनाने वाले होटलों में अधिकांशतः सरकारी चावल की ही खपत हो रही है। कारण साफ है, बाजार में बिकने वाला साधारण चावल₹50 प्रति किलो से कम भाव पर उपलब्ध ही नहीं है। जबकि पीडीएस का चोरी का चावल 15 से ₹20 प्रति किलो के भाव से सहज उपलब्ध है। बाजारू और सरकारी चावल के बीच भाव का यही भारी अंतर सरकारी चावल की कालाबाजारी का प्रमुख कारण बना हुआ है।
चावल की कालाबाजारी में उपलब्ध भारी काली कमाई ने सभी वर्गों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। अभी तक इस काले धंधे में भ्रष्ट राजनेता उनके गुर्गे, मार्केटिंग में काबिज जनप्रतिनिधि, कर्मचारी, शासकीय राशन दुकानों से जुड़े संचालक मैनेजर एजेंट ही लिप्त हुआ करते थे। लेकिन अब वह वर्ग भी  इस कालिख से कलंकित हो रहा है, जिसे मीडिया  कहते हैं। कुछ तथाकथित मीडिया कर्मियों का काम चावल की कालाबाजारी में बड़ा महत्वपूर्ण बना हुआ है। जैसे ही पीडीएस के चावल का अवैध परिवहन पकड़ा जाता है, वैसे  पत्रकारिता का लबादा ओढ़े हुए कुछ दल्ले किस्म के लोग पुलिस और खाद्य आपूर्ति विभाग पर दबाव बनाना शुरू कर देते हैं। जब दबाव  काम कर जाता है तो चावल के कलाबाजारियों से इन्हें इनकी दलाली प्राप्त हो जाती है। विश्वस्त खबरें तो यह भी हैं कि  ऐसे ही कुछ लोग अप्रत्यक्ष रूप से इस काले कारोबार में  पार्टनरशिप तक स्थापित कर चुके हैं।
लेकिन यहां स्पष्ट करना उचित रहेगा कि यह दलाल किस्म के लोग असल में मीडिया कर्मी हैं ही नहीं। इन्होंने शॉर्टकट में पैसा कमाने के लिए 5000 - 10000 खर्च करके मीडिया के कार्ड और माइक आईडी हासिल कर लिए हैं । जबकि असल श्रमजीवी पत्रकार तो खबरों की पड़ताल और उसके संकलन, संयोजन में ही व्यस्त बना हुआ है। अतः विश्वास है कि पत्रकारिता को अपना धर्म और आजीविका का शाश्वत साधन मानने वाले विशुद्ध अखबार नवीस इस लेख का बुरा नहीं मानेंगे।
इस पूरे मामले में सबसे अधिक संदेहास्पद भूमिका पुलिस और खाद्य आपूर्ति विभाग की है। क्योंकि ये दोनों विभाग अधिकांश कालाबाजारी से अनजान होने का प्रदर्शन कर रहे हैं। हद तो यह है मुखबिरों द्वारा सूचना दिए जाने पर भी ना तो पुलिस टस से मस होती है और ना ही खाद्य आपूर्ति विभाग हरकत दिखता है। जब कभी ज्यादा बवाल खड़ा हो जाए या फिर मुखबिर भी मामले को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हुए कानून हाथ में लेकर मामले का भंडाफोड़ करने पर उतारू हो जाए या फिर कलाबाजारियों की सेटिंग फेल हो जाए तो आनन-फानन में एफ आई आर दर्ज हो जाती है, माल और गाड़ी को भी बरामद कर लिया जाता है।
विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि गुना से जितना सरकारी चावल अवैध रूप से निर्यात हो रहा है, उसका बमुश्किल दो या चार प्रतिशत माल ही पकड़ में आता है। उसमें भी दिलचस्प पहलू यह है कि माल और परिवहन में संलग्न गाड़ी पकड़ने का प्रचार प्रसार तो जमकर होता है। पुलिस और खाद्य पूर्ति विभाग विधिवत प्रेस को जानकारी देते हुए जमकर अपनी पीठ भी थप थपाते हैं। लेकिन बाद में कितने मामलों के तहत चोरी के चावल और अवैध परिवहन में शामिल वाहन कब छूट गए, इसकी किसी को भनक तक नहीं मिलती। पूछताछ करने पर जवाब दिया जाता है कि मौके पर विधि सम्मत दस्तावेज न होने से शक के आधार पर माल और वाहन पकड़े गए थे। लेकिन बाद में माल और वाहन के मालिकों द्वारा संतोष जनक दस्तावेज प्रस्तुत किए जाने पर मामला रफा दफा करना पड़ गया। तब सवाल उठता है कि जिस प्रकार पुलिस और खाद्य आपूर्ति विभाग माल और वाहन के पकड़ने का ढिंढोरा पीटते हैं, उसी प्रकार वे वाहन एवं माल को सही पाए जाने पर उसका खुलासा जनता के सामने क्यों नहीं करते। यह क्यों नहीं बताते कि आरोपियों द्वारा उन्हें किस तरीके से "संतुष्ट" किया गया है। आम जनता में चर्चाएं व्याप्त हैं कि दाल में काला नहीं है पूरी दाल ही काली है। उपरोक्त परिदृश्य के चलते यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकारी चावल की कालाबाजारी और पुलिस खाद्य आपूर्ति विभाग की ओर से की जाने वाली रहस्यमी कर्रवाई को उच्च स्तरीय एवं ईमानदार जांच की दरकार है।
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