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Slums में रहने वाले फर्जी गरीब किराए पर चला रहे लाखों के बेशकीमती flat.

Slums में रहने वाले फर्जी गरीब किराए पर चला रहे लाखों के बेशकीमती flat.

मोहनलाल मोदी, शब्दघोष। भिक्षा और अनुदान, इन दो शब्दों का हमारे पुरातन सामाजिक परिवेश में काफी महत्व रहा है। भिक्षा जहां जनसाधारण के प्रति दायित्व वान संस्थाओं को समाज के प्रति जवाब देह बनाने की प्रक्रिया थी। वहीं अनुदान के माध्यम से वंचित वर्ग को आत्मनिर्भर बनाने का उद्यम निरंतर बना हुआ है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि अब भिक्षा और अनुदान दोनों ही पेशेवर मुनाफाखोरों के केंद्रित लक्ष्य बने हुए हैं। नतीजा यह है कि जिन्हें भिक्षा अथवा अनुदान की अत्यावश्यकता है, वह जानकारी, पहुंच और संसाधनों के अभाव में इससे वंचित बने हुए हैं। जबकि इन दोनों ही उपलब्धताओं का लगातार लाभ उठा रहा वर्ग, अब इनको अपहृत करने में विशेषज्ञता हासिल कर चुका है। नतीजतन यह वर्ग पात्र लोगों के अधिकारों पर कब्जा करने में जुटा हुआ है।
उदाहरण के लिए हमें भिक्षा संस्कृति पर ध्यान केंद्रित करना होगा, उसके बारे में जानना होगा। यदि सनातन संस्कारों और व्यवहारों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि भिक्षा एक ऐसी परंपरा रही है जो समाज के प्रति दायित्ववान व्यक्ति के अंतर्मन में जवाबदेही पैदा करती है। उदाहरण के लिए - जब भारत में गुरुकुल परंपरा चलन में थी तब वह शासकीय खजाने पर निर्भर रहने की बजाय ये समाज से प्राप्त भिक्षा द्वारा संचालित हुआ करते थे। ताकि गुरुकुल समाज के प्रति जवाब देह बने रहें और उनके भीतर यह अनुभूति स्थापित बनी रहे कि वे समाज के लिए है और समाज उनका है। लेकिन अब भिक्षा का स्वरूप भीख में परिवर्तित हो चुका है। यह भीख भी लंबे समय तक असहाय और कमजोर लोगों के लिए जीवन यापन का साधन थी। लेकिन अब यह बगैर पूंजी का बेहद फायदे वाला सुनियोजित और सुगठित धंधा बन चुका है। हालत यह हैं कि अब देश में भीख मांगने और मंगवाने वालों के बड़े-बड़े गिरोह संचालित हैं। इनमें कार्यरत लोग मेहनत मजदूरी करना नहीं चाहते। क्योंकि खून पसीना बहाने के बाद जो धन इन्हें प्राप्त होगा, उससे कई गुना अधिक इन्हें लोगों के सामने हाथ पसार देने भर से सहज ही उपलब्ध हो जाता है। इस आशय का अभिमत स्वयं भिखारी लोग अनेक सर्वेक्षण कर्ताओं के सामने उजागर कर चुके हैं। विभिन्न अभियानों के तहत शासन प्रशासन द्वारा इन्हें उठाकर विभिन्न गैर शासकीय संगठनों के हवाले भी किया जाता है। जहां इन्हें रहने को आवास, खाने को भोजन, पहनने को कपड़ा और श्रम के बदले धन की प्राप्ति उपलब्ध रहती है। इसके बावजूद मौका पाते ही यह लोग भाग खड़े होते हैं और एक अंतराल के बाद इन्हें विभिन्न चौराहों, बाजारों और मोहल्लों में भीख मांगते देखा जाता रहा है। गौर करने लायक बात यह है कि वर्तमान भिखारी भीख में दानदाता से पेट भरने के लिए भोजन की बजाय पैसों की स्पष्ट मांग रखते हैं। बिन मांगे भोजन मिल भी जाए तो आवश्यकता अनुसार खाने के बाद उसे कूड़े कचरे में फेंक देते हैं। यदि नया पुराना कपड़ा मिल जाए तो उसे औने पौने दाम लेकर हाट बाजार में धंधा करने वाले दुकानदारों को बेच दिया जाता है। अगले दिन इन्हें फिर से अर्धनग्न अवस्था में भीख मांगते देखा जा सकता है। क्योंकि जब अवस्था दयनीय दिखती है तो दाताओं का मन जल्दी पिघलता है और दान राशि अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाती है।
अब सवाल यह उठता है कि हमें आज अचानक यह सब लिखने की क्या सूझी?
इसका जवाब यह है कि विभिन्न समाचार पत्रों में एक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ है। उसके अनुसार हजारों  झुग्गी वासियों को हाउसिंग फॉर ऑल के तहत सरकार की ओर से जो पक्के आवास उपलब्ध कराए गए थे, वह अब किराए से चल रहे हैं। जिनके माध्यम से उन लोगों को प्रति माह भारी भरकम कमाई हो रही है, जिन्हें दया का पात्र मानकर गंदी बस्तियों से निकालते हुए पक्के आवासों में बसाया गया था। अब तक प्राप्त अनुभवों के आधार पर यह दावा किया जा सकता है कि जिन लोगों अथवा परिवारों को गरीब बेसहारा और दया का पात्र मानकर झुग्गी झोपड़ियां से निकालकर पक्के आवास दिए गए थे, वह सब लोग एक बार फिर अन्यत्र नई झुग्गी बनाकर, एक नई गंदी बस्ती बसाने में जुट चुके होंगे। इस सुनियोजित रणनीति के तहत कि भविष्य में जब भी उन्हें वहां से हटाया जाएगा तो एक बार फिर परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम से नए आवास उपलब्ध होंगे। जिन्हें बेचकर आय का एक और मजबूत जरिया स्थापित किया जा सकेगा। इस प्रकार यह चक्र अनंत काल तक चलते चले जाना है और चल भी रहा है। ठीक उस प्रकार जैसे एक भिखारी नए पुराने वस्त्र प्राप्त होने पर उन्हें औने-पौने दामों पर दुकानदारों को बेच देता है। ताकि वह फिर अर्धनग्न अवस्था में दया का पात्र बनकर अधिकतम भीख प्राप्त कर सके।
इन दोनों अवस्थाओं पर गौर करें तो एक बहुत बड़े वर्ग द्वारा भीख और अनुदान का पेशेवर तरीके से जमकर विधि विरुद्ध दोहन किया जा रहा है। फल स्वरुप स्वेच्छा से चीथड़ों में जीवन बसर करने वाले यह लोग कई बार लाखों करोड़ों रुपए लावारिस छोड़कर मर रहे हैं। वहीं वास्तविक रूप से भिक्षा और अनुदान के लिए जरूरतमंद लोग अपनी बारी आने का इंतजार करने को अभिशप्त बने हुए हैं। सरकार को इन विसंगतियों पर गौर करने के बाद अनुदान संबंधी नियमों में आमूल चूल परिवर्तन करने की अत्यावश्यकता है। ताकि जो वास्तविक जरूरतमंद लोग हैं, उन तक सरकार की सहायता पहुंच सके और षड्यंत्र के तहत गरीबों, बेसहारों के अधिकारों पर डाका डालने वाले पेशेवर लोगों को दंडित किया जा सके।
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