मोहनलाल मोदी।
सौभाग्यवश हम उस शिक्षा प्रणाली के साक्षी रहे हैं, जब स्कूलों में बालक और बालिकाओं को समान रूप से यह सिखाया जाता था कि सुबह उठकर माता-पिता के चरण छूना चाहिए। गुरुजनों का गोविंद के समकक्ष सम्मान करना चाहिए। अपने से बड़ी उम्र की महिला को मां और समान उम्र की महिला अथवा लड़की को बहन एवं कम उम्र की कन्याओं को बेटी समान समझना चाहिए। किंतु दुर्भाग्यवश वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अधिकांशतः ये बेहद आवश्यक पाठ गायब हो चुके हैं। वर्तमान शैक्षणिक संस्थान स्वयं ही गुरुजी को सर, गुरु माता अर्थात अध्यापिकाओं को मैडम, माता-पिता को मॉम डैड कहना सिखा रहे हैं। स्वयंभू विद्वान युवा समाज में बहन जी शब्द को हेय माना जाने लगा है। जो लड़की अथवा बालिका अपने समकक्ष सहपाठियों को भैया या फिर सहपाठिनी सखियों को दीदी कहने का उद्यम भी करती है तो उसे "बहनजी टाइप" अर्थात गंवार घोषित कर दिया जाता है। तो फिर वर्तमान युवा समाज, जो स्वयं को बेहद शिक्षित और सभ्य समझता है, वह मॉडर्न लड़की किसे मानता होगा यह लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती। सांकेतिक भाषा में इतना भर लिखना काफी है कि स्वयं को मॉडर्न कहलाने के लिए कम से कम भैया और बहन जैसे शब्द तो प्रासांगिक रहे ही नहीं। आज का स्वयंभू विद्वान युवा समाज अपने हम उम्र लड़कों को हाय फ्रेंड्स और लड़कियों को हे बेब्स कहकर संबोधित करना गौरव का विषय समझ रहा है। यदि अपने से बड़ी उम्र की किसी अपरिचित महिला से बात करना हो तो अब माताजी अथवा बहन जी शब्द से खुलकर परहेज किया जाता है। उनके स्थान पर मैम, मैडम, आंटी जी आदि आयातित शब्द युवा समाज के नैतिक संस्कार हैं। यहां स्पष्ट कर दें कि यह आयातित नैतिकता और संस्कृति हमें अचानक या फिर अकस्मात नहीं मिल गए। इन्हें बाकायदा लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति अंतर्गत संचालित तथा कथित बड़े और भव्य पब्लिक स्कूलों द्वारा वर्षों की मेहनत से गढ़ा गया है। नतीजा बेहद साफ है - लड़कों अथवा पुरुषों का लड़कियों या फिर महिलाओं के प्रति अपनत्व भरा सम्मान गायब है। लड़कियों और महिलाओं के मन में भी पुरुषों एवं लड़कों के प्रति उस मर्यादित आदर की कमी दर्ज की जा रही है जो कभी हमारे नैतिक संस्कारों का अहम हिस्सा हुआ करता था।
नतीजा हम सबके सामने है, अब पढ़-लिखकर बेहद संभ्रांत हो चुके स्वयंभू विद्वान भारतीय समाज में खून के रिश्तो से इतर माताजी, बहनजी, बिटिया रानी, भैया जी, भाई साहब, चाचा जी, बुआजी, फूफाजी, बब्बा, अम्माजी आदि अपनत्व भरे शब्द लगभग नदारद हो चुके हैं। जब जिव्हा से अपनेपन के सम्मानजनक उच्चारण विलुप्त हुए तो फिर हृदय से मर्यादा और सम्मान ने भी विदाई ले ली। बेहद साफ लहजे में कहा जाए तो अब मानव समाज एक प्रकार से स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के बीच बंटता जा रहा है। बेहद दुख के साथ लिखना पड़ता है कि लिंग के हिसाब से दो वर्गों में विभाजित यह समाज एक दूसरे को भोग की दृष्टि से देखने लगा है। इसका प्रमाण पुलिस के वह रोजनामचे हैं, जिनमें महिलाएं और लड़कियां खुलकर आरोप लगा रही हैं कि अमुक व्यक्ति ने शादी का झांसा देकर हमारा यौन उत्पीड़न किया। अधिकांश मामलों में आम सहमति के आधार पर बने इन नाजायज संबंधों को बलात्कार शब्द से भी विभूषित किया जा रहा है। आरोपित पुरुष वर्ग का वकील अदालत में यह कहता भी है कि दोनों के बीच जो कुछ भी हुआ वह आपसी रजामंदी के आधार पर था फिर यह बलात्कार अथवा एवं यौन शोषण कैसे हुआ ? शर्म की बात यह है कि इस तरह के यौन संबंध उन रिश्तों को कलंकित कर रहे हैं जिन्हें कभी बेहद सम्मान का प्रतीक माना जाता था। अध्यापक शिष्या से, अध्यापिका शिष्य के साथ, एक ही कक्षा में पढ़ने वाले भैया बहन एक दूसरे के साथ वासना में लिप्त हैं। इलाज के लिए अंतरंग परीक्षण के दौरान भगवान कहे जाने वाले चिकित्सक अथवा चिकित्सीय कारिंदो द्वारा रोगी के साथ ज्यादती की जा रही है। भारतीय समाज में जिस पड़ोसी को सहोदर के समान विश्वासपात्र माना जाता रहा है, वह बाजू में रहने वाला हवस का भेड़िया मासूम बालिका को चॉकलेट खिलाने के बहाने फुसला कर ले जाता है और बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर देता है। हमारी सुरक्षा के लिए तैनात की गई पुलिस भी वासना के इस खेल में कतई पीछे नहीं है। यहां भी अक्सर फरियाद लेकर आई हुई महिलाओं और लड़कियों के साथ आपत्तिजनक शब्दावली का प्रयोग होता है। कई बार यहां भी मर्यादाएं तार तार होती देखने को मिलती हैं। सवाल उठता है कि उपरोक्त समस्याओं का समाधान क्या है। तो इसके लिए जरूरी है कि हमें अपनी उस शिक्षा प्रणाली पर पुनर्विचार करना होगा, जो शिक्षित करने के नाम पर हमें हमारे ही नैतिक संस्कारों से दूर करती चली जा रही है। यह काम सरकार अथवा शैक्षणिक संस्थान स्वेच्छा से करेंगे इसमें संदेह ही है। यदि समाज में सुचिता और पवित्रता चाहिए तो हमें स्वयं से सुधार करना होगा। उदाहरण के लिए आजकल के मॉडर्न माता-पिता अपने बच्चों को गुरुकुल पद्धति से संचालित संस्कार युक्त विद्यालयों में पढ़ना नहीं चाहते। जैसे ही बच्चे दो-तीन साल के हुए उन्हें पश्चिमी सभ्यता से अभिभूत तथा कथित बड़े पब्लिक स्कूलों में भर्ती कराने का उद्यम शुरू हो जाता है। बस यही वह आदत है जिसे हमें बहुत जल्द बदलने की आवश्यकता है। वर्ना दुष्परिणामों की शुरुआत हो चुकी है। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब शुरुआत इतनी भयानक है तो फिर अति किस स्वरूप में सामने आने वाली है।
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