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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की समरसता दृष्टि में समाधान

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की समरसता दृष्टि में समाधान

डॉक्टर बृजेश साहू 
भारतीय समाज की संरचना में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख वेदों से मिलता है, जिसका मूल उद्देश्य समाज में कार्य-विभाजन और संतुलन बनाए रखना था। किंतु कालांतर में यह व्यवस्था जातिवाद और ऊँच-नीच के रूप में परिवर्तित हो गई, जिससे सामाजिक विभाजन और भेदभाव उत्पन्न हुआ। आधुनिक युग में अनेक विचारकों ने इस विषय पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया, परंतु समाधान की दिशा में ठोस पहल बहुत कम दिखाई दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने इस जटिल सामाजिक प्रश्न को “समरसता” के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया है — जो भेदभाव से ऊपर उठकर सामाजिक एकात्मता का संदेश देता है।

भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का मूल दर्शन कर्म और गुण पर आधारित था, न कि जन्म पर। श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा —
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।” अर्थात् — चार वर्णों की रचना गुण और कर्म के अनुसार हुई है, जन्म से नहीं।
परंतु समय के साथ यह विचार सामाजिक जड़ता और संकीर्णता में परिवर्तित हो गया, जिससे जातिगत भेदभाव, ऊँच-नीच की भावना और असमानता की गहरी खाई बनी।
वैदिक युग में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप श्रम-विभाजन पर आधारित था, जो सामाजिक सामंजस्य का प्रतीक था। ऋग्वेद (10.90) के पुरुषसूक्त में कहा गया —
“ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥”
यह प्रतीकात्मक रूप से समाज की विभिन्न भूमिकाओं का वर्णन है, न कि ऊँच-नीच का निर्धारण। परंतु उत्तरवैदिक काल से यह विभाजन सामाजिक स्थिरता के बजाय वर्चस्व का रूप लेने लगा।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर, महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया, दयानंद सरस्वती जैसे अनेक चिंतकों ने इस सामाजिक अन्याय की आलोचना की। उन्होंने इसके उन्मूलन की वकालत की, किंतु उनके विचार वैचारिक स्तर पर ही सीमित रहे।
जातिवाद ने भारतीय समाज की आत्मा को विभाजित किया। यह सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर विषमता उत्पन्न करने वाला तंत्र बन गया।
“भारत में भी जातिगत भेदभाव सामाजिक तनाव, आरक्षण विवाद और राजनीतिक ध्रुवीकरण का प्रमुख कारण है।
विचारकों की दृष्टि (Intellectual Discourses)
विभिन्न बुद्धिजीवियों ने इस विषय पर गहन चिंतन किया 
 • अम्बेडकर ने कहा कि जातिवाद “मानवता के आत्मसम्मान की हत्या” है।
 • महात्मा गांधी ने वर्ण व्यवस्था को श्रम के विभाजन का साधन माना, परंतु जाति आधारित ऊँच-नीच का विरोध किया।
 • स्वामी विवेकानंद ने कहा — “जो भी कमजोर है, उसे और कमजोर बनाना अधर्म है।”
इन सभी ने समस्या की पहचान की, परंतु समाज के समग्र उपचार के लिए कोई ठोस व्यावहारिक संगठनात्मक मॉडल प्रस्तुत नहीं किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दृष्टि में समाधान (RSS and the Vision of Samarasata)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (1925) से ही भारतीय समाज में समरसता का भाव जागृत करने का कार्य कर रहा है। संघ का उद्देश्य जाति के नाम पर बिखरे समाज को एकात्म दृष्टि से जोड़ना है।
सरसंघचालक ने अपने अनेक भाषणों में कहा है —
“हमें समाज में ऊँच-नीच नहीं, केवल मानवता और समानता देखनी चाहिए। हिन्दू समाज समरस होगा तो राष्ट्र सशक्त होगा।”
संघ ने “समरसता मंच”, “एकात्म मानव दर्शन”, “ग्रामोदय आंदोलन” और “समरसता सहभोज” जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सामाजिक समता की भावना को व्यवहार में लाने का प्रयास किया है।
समरसता  का अर्थ है — समाज में सभी को समान सम्मान, समान अवसर और समान आत्मीयता प्रदान करना। यह केवल सामाजिक समानता नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक एकात्मता की भावना है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के “एकात्म मानव दर्शन” में यह विचार स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि —
समाज एक जीवित शरीर के समान है, जिसमें प्रत्येक अंग का समान महत्व है।”
वर्ण व्यवस्था और जातिवाद भारतीय समाज की ऐतिहासिक वास्तविकता रहे हैं, परंतु उनका समाधान केवल वैचारिक आलोचना से नहीं, बल्कि व्यवहारिक समरसता से संभव है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का “समरसता दर्शन” इस दिशा में एक जीवंत और व्यावहारिक मॉडल प्रस्तुत करता है, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र — तीनों के बीच आत्मीयता और समानता का सूत्र जोड़ता है।

लेखन संस्कृत भारती के प्रांतीय पदाधिकारी हैं
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